राष्ट्रीय कवि संगम- गिरिडीह के अध्यक्ष उदय शंकर उपाध्याय की आठ कविताएं

कोरोना काल में साहित्य की भी खूब रचनाएं रची जा रही हैं. झारखण्ड के कवियों ने भी खूब कविताएं रचीं हैं. इंडियन माइंड उन कवियों का सम्मान करता है और उनकी कविताओं का प्रकाशन कर खुद को गौरवान्वित महसूस करता है.

प्रस्तुत है गिरिडीह के वरिष्ठ साहित्यकार, राष्ट्रीय कवि संगम- गिरिडीह इकाई के अध्यक्ष तथा सेवानिवृत्त शिक्षक उदय शंकर उपाध्याय की आठ कविताएं.

कवि परिचय

उदय शंकर उपाध्याय

अध्यक्ष, राष्ट्रीय कवि संगम, गिरिडीह इकाई
लगभग 42 वर्षों तक सरकारी विद्यालय का अध्यापक
जन्मतिथि : 04.08.1955
योग्यता स्नातकोत्तर (इतिहास)
पिता का नाम: श्री श्रीकान्त उपाध्याय
मूल निवासः पालगंज
जिला: गिरिडीह
वर्तमान पताः सहाना गली, बड़ा चौक, गिरिडीह
लेखन विधाः गद्य एवं पद्य। रचनाओं के प्रकाशन में अनास्था रही, फिर भी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं और कहानियां प्रकाशित। गिरिडीह शिक्षा विभाग की पत्रिका ‘बचपन’ का संपादन। लेखन कार्य में आरम्भ से रुचि, किन्तु सरकारी दायित्व से लेखन प्रभावित हुआ। सेवानिवृत्ति के उपरांत निरंतर लेखन। पद्य विधा ही प्रिय है, और छन्दोबद्ध एवं छंदविहीन लेखन, दोनों ही अच्छे लगते हैं। कुछ बातें बहुत कचोटती हैं, जिनको कागज पर उकेरने से आत्मिक शांति मिलती है।

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आठ कविताएं

कोरोना:तुम क्या विधाता?
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जिधर जिससे भी सुनता हूँ, कोरोना ही कोरोना है।
मनुज का नाश करता है, समूचा विश्व बौना है।
जिद्दी औ घमंडी है,बुलाये बिन नहीं आता,
नमस्ते कर के इसको दूर रखो कुछ न होना है।

वसा प्रोटीन से मिलकर, इसका आवरण बनता।
संक्रमित हाथ होते हैं, तो साबुन से यह घुलता।
अगर मुँह नाक ढँकते हैं, तो आँखे भी बचाएंगे,
दूरियाँ व्यक्तिगत रखें, तो फिर यह आ नहीं सकता।

भले दूरी हो सामाजिक, हृदय में भावना रखकर।
करें परिवार से बातें, अहम कोई भी बिसराकर।
पड़ोसी है अगर भूखा, तो उसका ख्याल रखना है,
उसको देंगे अपने अंश से ही, अपना हो-होकर।

अगर घर बंद रहते हैं, बहुत जल्दी ये भागेगा।
डरे इंसान जितने हैं, सबका भाग्य जागेगा।
भारत विश्वगुरु बन जाये, अपने ही प्रयासों से,
बहुत जल्दी ही संसार के, हर देश त्यागेगा।

क्षणिकाएँ
——–
1
एक विषाणु,
नाम कोरोना।
गलती किसी और की,
पर दण्ड सभी भरो ना।
2
कोरोना!
तुम रक्तबीज हो।
घातक, पटु और अबूझ,
तुम क्या चीज हो!
3
बहुत बवाल काटे,
जब हुई नोटबन्दी।
अब करो आराम,
संसार में तालाबंदी।
4
हजारों कब्रें खुदवाकर,
बोले इमरान।
कोरोना से बचने का,
यही तरीका आसान।
5
प्रकोप कोरोना का,
मुम्बई परेशान।
नेताओं ने कहा-,
कुर्सी तुम छोटी,
पर कोरोना महान।
6
जगह-जगह थूककर,
वे करते प्रयोग।
वैज्ञानिकों ने तो कहा,
पर क्या सचमुच,
बढ़ता रोग!

दोहों में शराब
————
आदिकाल की खोज हूँ, नुस्खा इक नायाब।
मदिरा या दारू कहो, या फिर कहो शराब।।

चढ़ूँ सदा ही माथ पर, आये बहुत सुरूर।
चाहे जैसी हो दशा, आये बड़ा गुरुर।।

तालाबंदी देश में, मुझको किया तबाह।
मदिरालय अब खुल गये, देख आशिकी चाह।।

सूने-सूने घर सभी, दिवस न लगता पार।
चाहत में इस भीड़ की, लंबी बहुत कतार।।

राज्यों को धन की कमी, बेबस थी सरकार।
संकटमोचक मैं बना, उनको थी दरकार।।

कोरोना तो खौफ है, मैं यारों की चाह।
गटगट बस पीते रहो, सबसे बेपरवाह।।

नित मेरे अभ्यास से, सदा मिटेगी लाज।
धरती पर रहकर लगे, ऊँची है परवाज।।

नेता अभिनेता सभी, रखते मुझसे चाव।
समतामूलक मैं सदा, रंक नहीं सब राव।।

आधि-व्याधि सबकुछ मिटे,करके सेवन रोज।
आँख शिथिल होती जरा, दिल के अंदर ओज।।

 

रोटी

माँ! बहुत भूख लगी है,
खाने को रोटी दो न,
क्या कहा- रोटी नहीं है!
कुछ तो करना होगा,
पेट की भूख मानती नहीं,
अपने बच्चों को मैं,
रोटियाँ दूंगा-भरपेट,
मेरा बचपन तो भूखा रह गया।

मैं परदेसी हो गया हूँ,
जी हाँ, आपकी शिष्ट भाषा में,
एक प्रवासी मजदूर,
मेरी हड्डियाँ गल रही हैं,
जी-तोड़ परिश्रम से,
लेकिन बेफिक्र हूँ मैं,
अपने बच्चों को रोटियाँ देकर।

कुछ अनहोनी सी हो गयी है,
अपने देश भारत में,
बेरोजगार हो गया मैं,
जमा पूंजी खत्म हो चुकी है,
अब फिर से भूखों मरने की,
नौबत आ गयी।

मैं भूख से मरने की हिम्मत,
अपने गाँव से लेकर आया,
लेकिन अपने बच्चों को,
भूखा नहीं देख सकता,
मुझे घर जाना होगा,
भगवान के दिये दो हाथों के साथ,
मैं दो पैरों पर भी भरोसा,
रखता आया हूँ हरदम,
चलता हूँ पटरियों के सहारे ही,
गाँव में ही मजदूरी कर लूंगा।

ओह्ह!
क्या हो गया अब,
एक मालगाड़ी रौंद गयी मुझे,
मेरी बोटियाँ छितरा गईं,
लेकिन मेरी रोटियां!!
पटरियों पर रखी हैं।

बच्चों!
आज तुम्हारे हिस्से की रोटी,
पटरी पर पसर गयी,
कोई बात नहीं,
तुम सनद रखना,
अपनी रोटी घर पर ही खाना,
मैं नहीं चाहता कि,
किसी की बोटियाँ,
रोटियों के चक्कर मे,
आये दिन पटरियों पर,
बिखर जाएँ।

वापसी
—–
रोज काम कर जिंदा रहता,
दुनिया मुझे कहे मजदूर।
अवलम्बन कर कर्म मार्ग का,
पर मैं क्यों इतना मजबूर।

उदरपूर्ति अपनी भी होती,
थोड़े में परिवार पले।
श्रम खातिर उपलब्ध सदा मैं,
सुबह दोपहर शाम ढले।

बंद पड़ी है मुंबई सूरत,
चेन्नई जयपुर या पंजाब।
संग्रह सारा शेष हो गया,
रहने का अब नहीं हिसाब।

रेलगाड़ियां बहुत चली हैं,
अपने भाग्य नहीं आतीं।
चलना है परिवार सहित फिर,
सारी राह गाँव पहुँचाती।

पैरों पर ही करूँ भरोसा,
मंजिल ये पहुँचायेंगे।
ताप बढ़ा है कोरोना का,
शायद मुक्ति दिलाएंगे।

भूखों मरने से अच्छा है,
कोरोना का ग्रास बनूँ।
जीवन अगर बचा रहता है,
घर में पहुँचकर आस बनूँ।

जितनी भी सरकार देश में,
सब जपती हैं मेरा नाम।
रोज करें ये नई घोषणा,
किन्तु करें न मेरा काम।

दल बहुत ऐसे हैं देश में,
सदा कहें मजदूरों की जय।
मुझे मदद की आन पड़ी तो,
मुझसे उनको भी लगता भय।

जो मजदूर पलायन करके,
अर्थार्जन को गये विदेश।
यान बिठाकर उनको लाते,
छोड़ उन्हें जो अपने देश।

हुनर भरी है मेरे हाथ में,
पर मिलती न मुझको ठाँव।
लो शहर हो तुझे मुबारक,
मैं चलता हूँ अपने गाँव।

कोरोना के छद्म प्रभाव
———————
हे परमेश्वर दया करो अब, आयी यह कैसी बीमारी।
बन्द हुआ बाजार निकलना, सचमुच है यह विपदा भारी।

चौबीस घंटे बंद हो घर में, रहूँ कभी भी ये न सोचा।
कपड़े बर्त्तन धोते जाऊँ, और लगाऊँ झाड़ू-पोंछा।

पत्नी ने कोरोना भय से, आया को दे दी है छुट्टी।
समय-समय पर पिला रही है, अब मुझको अनुशासन घुट्टी।

सोचा था इस लॉक डाउन में, घर मे रह आराम करूंगा।
नहीं पता था मुझको इतना, छुट्टी में भी काम करूंगा।

घर के अंदर बंद रहा तो, सीखा कोरोना से लड़ना।
काम-काज सारे निबटाकर, सीखा पत्नी से भी डरना।

पत्नी घर की श्रेष्ठ शक्ति है, सम्मुख उसके झुको सदा।
श्रेष्ठ बताओ उसके कुल को, दंडवत हो यदा-कदा।

सच कहता परिणाम सुखद, आएगा एकदिन लगे रहो।
चैन की नींद उसे लेने दो, आप रात भर जगे रहो।

ऐसा भाव समर्पण होगा, इसका होगा बड़ा इनाम।
फहरेगी यश कीर्ति पताका, ऊँचा होगा आपका नाम।

ऐसा नहीं सुनाता हूँ मैं, केवल अपनी मर्म-व्यथा।
मुखर हुआ मैं तभी बोलने, देखा घर-घर यही कथा।

शरणागत हैं मर्द सभी, हे पत्नी तेरी महिमा न्यारी।
गृहलक्ष्मी हो सदा सबल तुम, लगती कोरोना पर भारी।

उलझन-सुलझन
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अब आ गया है कोरोनासुर आसुरी जमात में।
खौफ इसका फैलता ही जा रहा हर बात में।

रास्ता इससे बचने का दूरी सभी से है मुफीद,
सूक्ष्मजीवी बन सदा घुसता है मानव गात में।

हों घरों में कैद इससे आत्मरक्षा लाजिमी,
संवाद दूरी से करें हम न बहें जज्बात में।

न्यूनतम जितनी जरूरत उतनी ही पूरी करें,
एहतियातन हो मुखौटा दिन में निकलें रात में।

स्वच्छता से यह डरे तो पास फटकेगा नहीं,
साबुन से करिए साफ तो फिर न रहेगा हाथ में।

सारी दुनिया बंद है मच गया ऐसा कहर,
मानव से दूरी बढ़ गयी नाजुक बने हालात में।

दौर इसका खत्म होगा गीत गाएँ खुशियों के,
मुंतजिर हैं मौका के हो साँस नव प्रभात में।

नमन एवं आभार
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देश प्रधान मेरा नमन, दिखता दृढ़ संकल्प।
जनता कर्फ्यू नाम से, जिसने दिया विकल्प।।

भारत-भू वासी नमन, दिया आपने साथ।
अपने घर सिमटे रहे, कोरोना भी मात।।

नमन स्वास्थ्यकर्मी सदा, रहकर घर से दूर।
अनथक जिनके यत्न से, कोरोना मजबूर।।

नमन सदा हे सशस्त्र बल, जिनकी अनुपम भक्ति।
रहें सुरक्षित लोग सब, भारत की हैं शक्ति।।

नमन मीडिया-कर्म है, जोखिम ले दिन-रात।
सबको करते रू-ब-रू, पहुँचा अपनी बात।।

नमन प्रशासन तंत्र है, जिनकी हो सरकार।
तत्पर रह कोशिश करें, लोग न हों लाचार।।

उनको भी मेरा नमन, करते सदा विरोध।
लगातार ही विष वमन, अवसर नूतन शोध।।

 

धन्यवाद

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