वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार संजय करुणेश की कोरोना पर चार कविताएं

कोरोना काल में साहित्य की भी खूब रचनाएं रची जा रही हैं. झारखण्ड के कवियों ने भी खूब कविताएं रचीं हैं. इंडियन माइंड उन कवियों का सम्मान करता है और उनकी कविताओं का प्रकाशन कर खुद को गौरवान्वित महसूस करता है.

प्रस्तुत है वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार संजय करुणेश की चार कविताएं.

कवि परिचय

संजय ‘ करुणेश ‘
( मूल नाम : संजय कुमार मिश्रा )
संप्रति : समाचार संपादक
‘क्रॉस फायर’ हिन्दी मासिक, रांची ( झारखंड )
विगत तीस वर्षों से साहित्यिक विधाओं में अनवरत लेखन ।
प्रकाशन : ‘ दस्तक ‘ ( 1990 ) सारस्वत सम्मान ( राष्ट्रीय कवि संगम – 2017 और 2018 ) झारखंड कुसुम ‘ ( 2018 ) काव्य संकलन । हिन्दुस्तान, आज, आवाज, प्रभात खबर, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, आर्यावर्त, रांची एक्सप्रेस, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, भोर, हंस, सबरंग,  नयी दुनिया, पाञ्चजन्य, कादम्बिनी, आजकल, आरोह, नयी – पीढ़ी, सुमनसौरभ, तुलसी कहानियां, प्रतियोगिता दर्पण सहित विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
‘ साहित्योदय ‘ ग्रुप प्रबंध निदेशक
पता : शास्त्री नगर, दुर्गा मंडप के नजदीक ,गिरिडीह ( झारखंड)
संपर्क : 9304149520

फेसबुक : https://www.facebook.com/sanjay.karunesh.75

 

दर्द अनकहा…… ( मजदूर गाथा )
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भागमभाग थी शहर में लेकर सपना दिन – रात जगा ,
गांव के गुड़ की तरह हर पल यहां मीठा लगा ।
आज कसैला हुआ शहर एक अदृश्य बीमारी से ,
लौट रहे हैं सभी श्रमिक जीवन की लाचारी से ।।
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देखो ….! शहर का हाल देखो
यहां जिंदगी बचाने की
आज सबकी लाचारी है
स्वार्थवश काम के लिए
हम सबको सलीके से बुलाया था
समयचक्र में दिमाग औ दौलत से
सब मलिकार मोटे हो गये हैं
…व्यवस्थाओं में श्रमिकों का
तिल – तिल खून चूसकर
तभी तो कह रहे…,
चले जाओ …, अपने – अपने गांव
वाह रे मतलबी इंसान….!
कितनी आसानी से कह दिए
कम से कम फलसफा वफादारी का
घर में ही पल रहे कुत्ते से सीख लेते
पर नहीं …., तुम तो धनपशु हो
हां धनपशु ! हृदयहीन, संवेदनहीन
बिल्कुल ही शहरी जोंक हो
खैर .., सलामत रहो …!
मैं जा रहा तुम्हारे मतलबी शहर से
तुम अपने शहर में खुश रहो
तुम मिलावटी थे , मिलावटी ही रहोगे
पर मैं स्वदेशी – सा
अपने गांव की माटी में रहूँगा
फिर… , फिर से
उसी मिट्टी में खेलूँगा
तुम्हारे पैरों से कुचलने से
थोड़ी न मरुँगा
शायद ! तुम्हें पता नहीं
पैरों से कुचलने से शरीर मरते हैं
पर आत्माएं,
हां , हां आत्माएं
हमेशा जिंदा रहती हैं …..!

मजदूर शहर का
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समय और काम का मारा हूँ
हां मैं एक मजदूर बेचारा हूँ
देखकर सपने …., सिसकता हूँ
चोट दर चोट खाकर मजूरी में
हर दिन हर पल बिखर जाता हूँ
लुहारी – भट्ठी से लेकर
ठेले या फिर पल्लेदारी में
या फिर — कुदाल, खुरपी, हथौड़े, चिमटे, हल, हंसुए, छेनी, गैंता,
टांगी संग सिमेंट, मिट्टी गारे की करनी तक
लगातार मजूरी के चोटों से
बेजान अपने तन – मन को
किश्तों में पिघलाता हूँ
भावशून्य संवेदनहीन हो
बूँद – बूँद मरता हूँ,
दरअसल गांव – शहर की
लुटेरी हवा के हाथों
घिसी – पिटी जिंदगी मेरी
पुरानी कड़ाही – सी हो गयी है
लगातार चोटों से आहत
और बेजान हुए तन – मन को
अपने गुदगुदे हाथों से
कोई लाख सहलाये
हथेलियों की करुणा को
सिर्फ औ सिर्फ छाले मिलते हैं,
रिश्तों पर परिचय की सलवटें
न पड़ने देने के
तरीकों में मगरुर हूँ
हां –, मैं मजदूर हूँ !

बस यूँ ही ….!
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कितना बदल गया जमाना
सोच कर मुझको बताना
हर जगह अपने देश में
अमन पसंद की धरती पर
गूंज रहा इकबाल का शेर —
‘ क्या बात है कि हस्ती
मिटती नहीं हमारी … ‘
सुनकर शेर बौखला जाता इरफान
कहने लगता —
इन थोथे इस्लामी आदर्शों का
कहीं अहर नहीं दिखा
इन पंक्तियों को तो
प्रसिद्ध मनहूस कवि ने
मुसलमानों को जगाने के लिए लिखा ,
ऐसी पंक्तियों से परहेज करें
बहकावे में न आएं
मज़हब और सियासत ख़ातिर
क्यों बहाएं रक्त – नदी
सुख चैन की ख़ातिर
माफ नहीं करेगी सदी
सब वाशिंदे हैं भारत के
आओ मिलकर सभी
भारत का गुनगान करें ,
इस मिट्टी की ख़ातिर
हम सबका सम्मान करें !

कसक ….
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दिल में पेट थी
और पेट में कविता
कविता अजन्मे बालक की तरह
मचल रही थी पेट में
दिन ब दिन बढता जा रहा था पेट
बहुत हरारत हो रही थी, खूब पसीना भी
कि पता नहीं बच्चा रुपी कविता
कैसे और किस रुप में आएगी कोरोनाकाल में
घर में घुप्प अंधेरा हो गया था
और जन्म लेनेवाली थी कविता
अभावों की जमीं पर पहली कविता आने को थी
न डाॅक्टर औ न नर्स
सब मुझे ही झेलना था
उमस थी, गर्मी भी
मुश्किल था बताना किसी को भी
कि कविता दिल में पेट से थी
हो उजाले में जन्म कविता का
यह सोचकर बगल में
बंद पड़े मेट्रो रेल के प्लेफार्म पर आ गया
सोचा , यहां चकाचौंध करती
दिनभर सेनेटाईज हो चुके प्लेटफार्म पर
नन्हीं कविता खिलखिलाकर जन्म लेगी
पर वहां भी बैठते ही आ गये खाकी वर्दी वाले
कशमकश में कविता के बदलने लगे हाव – भाव
कागज़ कलम हाथ में देखकर भी
नहीं पसीजा खाकी वर्दीवाला
तो वापस लौटना पड़ा
न रौशनी मिली
औ न ही कविता का जन्म हो पाया
एक कराह भरी आह निकली
दिल के पेट में पड़ी कविता
पेट में ही मर गयी ….!

धन्यवाद

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